80 से अधिक तपस्वी जैन साधु और साध्वियों का आगमन

पेटलावद में ऐतिहासिक मंगल प्रवेश: तीन जैनाचार्यों समेत 80 से अधिक साधु-भगवंतों का भव्य स्वागत

पेटलावद. (म.प्र.) जैन धर्म के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय जुड़ गया जब झारखंड राज्य स्थित पावन श्री सम्मेतशिखरजी महातीर्थ से लगभग 2,000 किलोमीटर की कठिन और तपोमयी पदयात्रा पूर्ण कर तीन महान जैनाचार्यों समेत 80 से अधिक जैन श्रमण-श्रमणि भगवंतों का पेटलावद नगर में मंगल प्रवेश हुआ। यह अवसर न केवल स्थानीय जैन समाज के लिए, बल्कि समस्त मालवा अंचल के लिए भी अत्यंत गौरवपूर्ण और ऐतिहासिक रहा।

इस पदयात्रा का नेतृत्व तपगच्छ के आचार्य, जीर्णोद्वारज्योतिधर और धर्मप्रभावक प्रमुख जैनाचार्य श्री विजय मुक्तिप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने किया। उनके साथ सन्नद्ध थे - पुण्यात्मा जैनाचार्य श्री विजय पुण्यरक्षितसूरीजी महाराज और सागर समुदाय के तेजस्वी जैनाचार्य श्री विजय आनंदचंद्र सागरसूरीजी महाराज। इन तीनों आचार्यों के साथ 80 से अधिक तपस्वी जैन साधु और साध्वियों का यह आगमन अत्यंत श्रद्धा, भक्ति और उत्साह से संपन्न हुआ।

नगर ने किया भव्य स्वागत

पेटलावद में जैन समाज द्वारा भव्य स्वागत यात्रा निकाली गई, जिसमें नगरवासियों ने जगह-जगह गुरुदेवों की अगवानी कर पुष्पवर्षा और आरती से स्वागत किया। स्वागत यात्रा के समापन पर वर्धमान स्थानक में एक विशाल धर्मसभा का आयोजन किया गया, जिसमें आसपास के अनेक नगरों — रतलाम, बामनिया, झाबुआ, रायपुरिया, उन्हेल आदि से हजारों श्रद्धालु उपस्थित हुए।

“आज की यात्रा आत्मीयता और एकता का प्रतीक” — आचार्य श्री आनंदचंद्र सागरसूरीजी

धर्मसभा की शुरुआत सागर समुदाय के प्रखर प्रवचनकार आचार्य श्री विजय आनंदचंद्र सागरसूरीजी महाराज के सारगर्भित प्रवचनों से हुई। उन्होंने इस स्वागत यात्रा को आत्मीयता, विशालता और एकता का प्रतीक बताया। उन्होंने भगवान महावीर द्वारा दिखाए गए दो प्रमुख मार्ग — आहार चर्या और विहार चर्या — को विस्तार से समझाया।

उन्होंने कहा कि जैन साधुओं की उपस्थिति न केवल छोटे-छोटे गांवों में धर्म का दीप प्रज्वलित करती है, बल्कि साधु भगवंतों का आहार हर छोटे घर में जाकर उस गृहस्थ जीवन को भी पुण्य से भर देता है। यही कारण है कि जैन धर्म की परंपरा गांव-गांव और घर-घर में धर्म की उपकार सरिता बहाती है।

“चार दुर्लभताएँ” जैनाचार्य विजय पुण्यरक्षितसूरीजी

इसके बाद जैनाचार्य श्री विजय पुण्यरक्षितसूरीजी महाराज ने अपने दिव्य प्रवचनों से उपस्थित श्रद्धालुओं को धर्म के चार दुर्लभ लाभों की ओर ध्यान आकृष्ट किया:

  1. मानव जन्म,
  2. जिनवाणी का श्रवण,
  3. भगवान के वचनों में श्रद्धा, और
  4. संयम जीवन में पुरुषार्थ

उन्होंने समझाया कि इस संसार में आत्मा का चक्रवात कभी भी स्थिर नहीं रहता और जो आत्मा इन चार दुर्लभताओं को प्राप्त कर पाती है, वही सच्चे मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि मानव जन्म की सार्थकता संयम जीवन में निहित है। धर्म के कार्यों को कभी भी टालना नहीं चाहिए क्योंकि धर्म का क्षय होते ही जीवन की दिशा भ्रमित हो जाती है।“मोक्ष का मार्ग सीधा है, पर सरल नहीं” 

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