आधि का स्थान मन में है, व्याधि का स्थान शरीर है और उपाधि का स्थान बाहर के पौद्गलिक पदार्थ एवं घर, कुटुम्ब और परिवार है

 


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               निर्ग्रन्थ प्रवचन - सम्यग्दर्शन

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अनंत-अनंत उपकारी सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर प्रभु ने संसारी प्राणियों के उद्धार, उत्थान और कल्याण के लिए यह दुर्लभ जिनवाणी फरमायी। जो भव्य प्राणी जिनवचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचिकर तदनुसार आचरण करते हैं, वे मोक्ष के अव्याबाध सुखों को प्राप्त करते हैं। प्रभु फरमाते हैं कि आधि, व्याधि और उपाधि के त्रिविध ताप से संसारी प्राणी जल रहे हैं।

आधि का स्थान मन में है, व्याधि का स्थान शरीर है और उपाधि का स्थान बाहर के पौद्गलिक पदार्थ एवं घर, कुटुम्ब और परिवार है।

इस त्रिविध ताप से तपते संसारी प्राणियों के लिए अगर कोई शीतलता देने वाली है तो वह है वीतराग वाणी। जिस वीतराग प्रभु की वाणी को सुनने के लिए देवलोक के देव और देवियाँ नाटक आदि को छोड़कर मृत्युलोक में आते हैं। तीर्थंकर प्रभु की देशना एक प्रहर तक चलती है। देव और देवियाँ तीर्थंकर की वाणी का जितना महत्त्व समझते हैं क्या आप उतना महत्त्व जिनवाणी का समझते हैं? यदि आपको वीतराग वाणी का महत्त्व समझ में आया होता तो आप व्याख्यान सभा में देरी से नहीं आते। वीतराग वाणी ऐसी-वैसी नहीं है, इसका मूल्यांकन तो करने वाले ही कर सकते हैं।

जो वीतराग वाणी का महत्त्व समझते हैं वे ही ज्ञानाराधना कर पाते हैं। जैसे वस्त्र पर लगे दाग, शरीर पर लगे दाग पानी से साफ हो सकते हैं वैसे ही आत्मा पर लगे दागों को साफ करने वाला कोई साधन है तो वह है सिद्धान्त। आत्मिक सुख प्राप्त करने के लिए सिद्धान्त जड़ी-बूटी है। बाहर का ज्ञान चाहे जितना कर लिया जाय किन्तु सिद्धान्तों का ज्ञान नहीं है तो उसकी कोई विशेषता नहीं है। सिद्धान्त का ज्ञान चारित्र को मजबूत करता है। चारित्र के आचार विचार कैसे होते हैं, यह सिद्धांतों से पता लगता है। आज व्यावहारिक ज्ञान तो बहुत बढ़ा है, कई प्रकार के डिग्री कोर्स चलते हैं। यहाँ देश की पढ़ाई अच्छी नहीं लगे तो माँ-बाप विदेशों की डिग्रियाँ को लेने बाहर पढ़ाई के लिए भेजते हैं और वहाँ की डिग्रियाँ प्राप्त कर हर्षित होते हैं। परन्तु ज्ञानी फरमाते हैं कि जिन सांसारिक डिग्रियों को प्राप्त कर आप हर्षित होते हों, उनका फल कितना? व्यक्ति को डिग्री के अनुसार नौकरी मिल जाती है। कमाई बढ़ जाती है ज्यादा पैसा हो जाता है तो अच्छा खाना पीना, पहनना, सोना, चाँदी, रुपया आदि संपत्ति, घर बंगला और मान प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। इसके अलावा डिग्रियों से और क्या मिलता है? क्या उस सांसारिक ज्ञान से मोक्ष मिल सकता है? नहीं, मात्र आजीविका के लिए उस ज्ञान की जरुरत है परन्तु मोक्ष प्राप्त करने के लिए तो सिद्धान्तों का ज्ञान जरुरी है। ज्ञान के साथ चारित्र की महत्ता है। आचार बिना का ज्ञान शून्य है। ज्ञान थोड़ा हो तो बाधा नहीं परन्तु चारित्र अवश्य होना चाहिए। कहा भी है -
जहा खरो चंदण भारवाही भारस्स भागी न हु चंदणस्स। 

एवं खु णाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागी न हु सुग्गईए।। 

जिस प्रकार गधे के ऊपर चंदन की लकड़ियों का भार रखा हो परन्तु वह गधा उस चंदन की लकड़ियों के भार को ही ढोता है, चंदन की सुवास व शीतलता का आनंद नहीं ले पाता। उसी प्रकार चारित्रहीन ज्ञानी का ज्ञान केवल भार रूप है किन्तु वह सुगति का अधिकारी नहीं बन सकता अतः चारित्र सहित शास्त्र ज्ञान की महत्ता है। शास्त्र का एक- एक वचन भी कितना उपयोगी है? रुचि बिना भी अनिच्छा से एक शब्द सुनने वाले रोहणिया चोर की आत्मा तिर गयी। अनिच्छा से भी एक वचन सुनने वाला जन्म-जरा और मरण की श्रृंखला को तोड़ता है तो जो आत्मा शुद्ध भाव-पूर्वक वीतराग की वाणी सुनता है, उसे कितना महान् लाभ होता है? इसके लिए शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है। यदि आगम ज्ञान होगा तो अन्यधर्मियों के सामने टिक सकोंगे। यदि ज्ञान नहीं तो श्रद्धा भी डिगमिगा जायेगी। जैसे चिड़िया का बच्चा अभी छोटा है उसके पँख अभी मजबूत हुए नहीं है। वह अपनी माता को ऊँची उड़ती देख कर विचार करता है कि मेरी माता ऊँची उड़ती है तो मैं क्यों न उहूँ? मैं क्यों घोंसले में बैठा रहूँ? ऐसा सोच कर अपनी शक्ति को परखे बिना वह

बच्चा उड़ने जाय तो वह मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो जीव शास्त्र ज्ञान की, श्रद्धा की पाँख को मजबूत नहीं करके दूसरे के जीव आत्म-ज्ञान की बातें सुनने दौड़ेगा तो उसकी श्रद्धा टूट जायेगी।र के पा वीरवाणी महान् भाग्य से मिली है। संत अपनी शक्ति-क्षयोपशम के

अनुसार सिद्धान्त में से मंथन करके नवनीत निकालते हैं और हमें परोसते है परन्तु उस वाणी के प्ररूपक तो तीर्थंकर भगवान् हैं। भगवान् के मुखमासे उस दिव्य वाणी का घोष हुआ है, गणधरों ने उसे झेला है और आचार्य भगवन्तों ने उस वाणी को लिपिबद्ध किया तो हमें सुनने को मिली है। भगवान् की वाणी भवसागर से तिरने का साधन है। चाहे जैसा होशियार और बलवान् तैराक हो परन्तु उसे तिरने के लिए साधन की आवश्यकता तो रहती ही है? नाव से तिरे या भुजा बल से तिरे, सहारा तो लेना ही पड़ेगा। सहारे के बिना तैराक तिर नहीं सकता उसी प्रकार यह सर्वज्ञ प्रभु की वाणी भवसागर तिरने के लिए आधारभूत है। जो मनुष्य इसका सहारा ले लेता है, वह जल्दी से अथवा देरी से अवश्य भवसागर से तिर जाता है। जीव की इस पर दृढ़श्रद्धा होनी चाहिए।

आज तो श्रद्धा का ही दिवाला है। कितनेक लोग ऐसा बोल देते हैं कि यह सिद्धान्त भगवान् की वाणी है, ऐसा कैसे जानें/कैसे मानें?

बंधुओ ! इस विषय में मैं आपसे एक बात पूछता हूँ कि तुम्हारे पिताजी का देवलोक गमन हो गया, उनके द्वारा लिखी बहियों में किसी से रूपये लेने का लिखा है, उसके आधार से आप उस व्यक्ति के पास रूपये माँगने गये और वह आपको कहे मैं आपको नहीं जानता, पहचानता, तब आप उसे क्या कहते हैं कि आप मुझे नहीं जानते पर मेरे पिताजी को तो जानते थे न? उनकी इस बही में क्या लिखा है? आप उसे नहीं जानते और आपको वह नहीं जानता परन्तु बही में लिखे पर श्रद्धा करते हो न? किन्तु यहाँ वीतराग वाणी के ऊपर जीव को श्रद्धा नहीं, इसलिए यह बोलता है कि कौन जाने, किसने देखा कि सिद्धान्त की बात सच्ची है? भगवान् के वचनों का उत्थापन करने वाले को पता नहीं कि ऐसा बोलने पर उनकी क्या दशा होगी? ज्ञानी के वचनों की आशातना करने पर कैसे कर्मों का बंध होगा? 

जिसे वीतराग वचनों पर दृढ़ श्रद्धा है वह संसार में रहते हुए सांसारिक कार्य करते हुए भी धर्म आराधना की सोचेगा, पाप से बचने की कोशिश करेगा, स्वयं धर्म करेगा और दूसरों को भी धर्मी बनाने का पुरुषार्थ करेगा। उन्हें जैन धर्म का महत्त्व समझाएगा।

ऐसा समझ कर जो प्राणी वीतराग वाणी का अनुकरण, अनुसरण करेंगे, वे इसलोक में भी सुखी होंगे और परलोक में भी सुखी होंगे। (क्रमशः)

निर्ग्रन्थ प्रवचन -

संत शब्द सुधा (३६१) के प्रवचनों से संपादित "सम्यग्दर्शन पत्रिका २  अप्रैल २०२४" को प्रकाशित पुस्तक से साभार

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