क्रोध, मान, माया, लोभ - जब तक है तब तक वह "तप" नही लंघन कहलायेगा,, सबसे बड़ा तप ही "कषाय निग्रह" है-
पूज्य श्री गुलाबमुनिजी म.सा.
जब तक बीज है तब तक नए बीज पैदा होते रहेंगे, जब सारे बीज जल जाएंगे तो बीज उत्पन्न ही नही होंगे, ऐसे ही आत्मा में जब तक कर्म है तब तक वह भटकती रहेगी जिस दिन आत्मा से कर्म साफ हो गए जीव का उत्पन्न होना (भटकना) बन्द हो जाएगा और उसे मोक्ष का चरम सुख मिल जाएगा। आत्मा को कर्म रहित करना है, कर्मो को नष्ट करना है तो तपस्या आवश्यक है।
उक्त विचार आगम ज्ञाता पूज्य गुरुदेव प्रखर वक्ता श्री गुलाबमुनिजी महाराज साहब ने करही के अणु नगर स्थित स्थानक भवन में व्यक्त किये।
गुरुदेव ने फरमाया की आत्मा से कर्मो का मेल व जंग निकलना बहुत आवश्यक है और यह तप से ही निकलेगा क्योकि *सहन किये बिना सफलता मिलने वाली नही है ।* तप तीन प्रकार से होते है -
1 - तामसी तप
2 - राजसी तप
3 - सात्विक तप
तामसी तप ऐसा तप जिसमे बदले की व निदान की भावना होती है। आज मेरा सामर्थ्य नही है में तप करूँगा बाद में तुम्हारी 12 बजा दूंगा, ऐसी बदले की भावना करने वाले अंडरग्राउंड (नरक) जाते है । भगवान महावीर की आत्मा ने भी पिछले भव मे तप में निदान किया था जिस कारण उन्हें भी नरक गति में जाना पड़ा था।
राजसी तप ऐसा तप जिसमे रिद्धी, सिद्धि, यश, मान, सम्मान, सत्कार, पद, प्रतिष्ठा, बख्शीश, इनाम, सर्टिफिकेट आदि पाने की भावना होती है वह राजसी तप होता है । प्रसिद्धि की भावना जब तक है तब तक आत्मा सिद्ध नही हो सकती है, सिद्धि की भावना लाये बिना मोक्ष सम्भव नही है ।
सात्विक तप मात्र कर्म निर्जरा के लिए किया गया तप ही आत्मा को सिद्धस्थल ले जाएगा ।जैसे मैले कपड़े जब धोते तो तब किसी से अपेक्षा रखते हो कि कोई तुमसे पूछे कि भाई ठीक हो, ऐसे ही तप करके आत्मा से जब कर्मो का मेल निकाल रहे हो तो क्यो किसी से अपेक्षा करते हो की तुमने मेरी साता नही पूछी ।
*बिना अपेक्षा से किया गया तप ही आत्म कल्याण में सार्थक होता है ।*
पिछले भव में तुमने खूब बड़ी बड़ी तपस्या कर ली, खूब प्रसिद्धि भी पा ली लेकिन अब ऐसा तप करो कि आत्मा का भटकाव बन्द हो जाये।
"क्रोध, मान, माया, लोभ जब तक है तब तक वह तप नही लंघन कहलायेगा,,
सबसे बड़ा तप ही "कषाय निग्रह" है। जैसे भोजन करने के बाद शरीर मे ताकत आना ही चाहिए, नही आये तो मानना की शरीर की मशीन गड़बड़ हो गयी है वैसे ही तप के बाद कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) कम होना ही चाहिए वरना समझ लेना आत्मा की मशीन गड़बड़ हो गयी है। पाप कर्म को नष्ट करने के लिए तप आवश्यक है। मात्र उपवास या अठाई करना तप नही है, आगमो में तप के 12 प्रकार बताए गए है जिससे हम पाप कर्मों का अंत कर सकते है क्योंकि पाप कर्म नष्ट नही हुए तो जीव भटकता रहेगा। पूज्य गुरुदेव ने कल के विषय को आज आगे बढ़ाते हुए बताया की चिंता, टेंशन, तनाव बहुत ही खतरनाक होता है ये जीव को मौत की शैय्या तक पहुँचा देता है।तनाव में रहने वाले व्यक्ति का दूसरा लक्षण तनाव ग्रस्त व्यक्ति अपने आप को निकम्मा और अपराधी समझता है। सम्यक बोध (सही समझ) के आभाव में जीव खुद को अपराधी मानने लगता है और डिप्रेशन में चले जाता है। अरे भाई मनुष्य भव की प्राप्ति सहज में नही होती है, चार गति चौरासी लाख जीव योनि में भटकने के बाद जब कर्म हल्के होते है और हमारी अनंत पुण्यवानी उदय में आती है जब जीव को मनुष्य भव मिलता है। यह बहुत कीमती है, बहुत सुंदर अवसर मिला है और फिर भी तनाव व टेंशन में रहोगे तो फिर से गति भृमण जारी हो जाएगा।
जो बोया वो पाया फिर क्यो रोया। यदि कोई भूल हो गयी है तो कोई बात नही, क्योकि मानव मात्र-भूल के पात्र है। थोड़ी शांति रखो, मन मे समभाव रखो। किसी को अभी माफ करने का गोल्डन चांस तुम्हारे पास है इसे व्यर्थ मत गवाना (बीती बात, बिसार दो) आंखे बंद होने पर बैर यदि रह गया तो कितने भव बिगड़ जाएंगे पता भी नही चलेगा। जिनवाणी में ज्ञानियों ने धर्म का रास्ता बताया है जिससे तनाव खत्म हो और समाधि मिले, तो धर्म आराधना में लीन रहो तो यहाँ भी आनंद वहाँ भी आनंद ।
उक्त बातें पूज्य गुरुदेव के प्रवचन अंश से ली गयी है, भूलवश जिन आज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कड़म।
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